प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी के नाम पे रखा है बारी मैदान का नाम, जंगए आज़ादी में निभाय थे अहम भूमिका
⤴आइये जानते हैं कौन थे प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी ⤵
▶ प्रोफे़सर अब्दुल बारी 1892 को बिहार के ज़िला भोजपुर के इलाके कोइलवर के गांव शाहबाद में पैदा हुए.
▶ प्रोफे़सर अब्दुल बारी का हसबो नसब बिहार के सूफ़ी संत सैय्यद इब्राहिम मल्लिक बया रहमतुल्लाह अलैहि से जा मिलता है.
▶ इनके वालिद का नाम मोहम्मद क़ुरबान अली था.
▶ पटना कालेज और जामिया पटना (युनिवर्सटी) से आर्टस में मास्टर डिग्री की हासिल की थी.
▶ 1917 मे माहत्मा गांधी के साथ इनकी पहली मुलाक़ात हुई जब मौलामा मज़हरुल हक़ गांधी की मेज़बानी पटना मे कर रहे थे.
▶ 1921 ई. -1922 ई. -1942 ई. मे इन्होने तहरीक ए आज़ादी की जद्दोजेहद के लिए बिहार - उड़ीसा - बंगाल के मज़दुरों को मत्ताहिद किया और उन्हे एक बैनर तले लाने मे अहम किरदार निभाया
▶ 1920-22 मे हुए ख़िलाफ़त और असहयोग तहरीक (आंदोलन) के समय राजेंद्र प्रासाद, अनुग्रहण नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह के साथ कंधे से कंधे मिला कर पुरे बिहार मे इंक़लाब बपा किया.
▶ 1921 मे मौलामा मज़हरुल हक़ की मेहनत और पैसे की वजह कर बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन 6 फरवरी 1921 को मौलाना मुहम्मद अली जौहर और कस्तूरबा गांधी के साथ पटना पहुंचे महात्मा गांधी ने किया था. मौलाना मज़हरूल हक़ इस विद्यापीठ के पहले चांसलर नियुक्त हुए और इसी इदारे मे अब्दुल बारी प्रोफे़सर की हैसियत से मुंतख़िब हुए. वहीं ब्रजकिशोर प्रसाद वाईस-चांसलर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद प्रधानाचार्य बनाए गए..
▶ 1930 मे अब्दुल बारी ने भागलपुर मे सत्याग्रह अंदोलन छेड़ा जिसमे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उनके साथ थे.
▶ 1936 के सुबाई इंतख़ाब मे बिहार विधान सभा के सदस्य के रुप मे मुंतख़िब हुए..
▶ 1937 में राज्य चुनाव में 152 के सदन में 40 सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित थीं जिनमें 20 सीटों पर ‘मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी’ और पांच सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की.
▶ शुरू में कांग्रेस पार्टी ने मंत्रिमंडल के गठन से यानी सरकार बनाने से इंकार कर दिया तो राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में बैरिस्टर मो. यूनुस को प्रधानमंत्री (प्रीमियर) पद का शपथ दिलाया.
▶ लेकिन चार महीने बाद जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन पर सहमत हो गई तो यूनुस ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
▶ 1937 में बिहार मे पहली बार कांग्रेसी की हुकुमत वजुद मे आई, और अब्दुल बारी चंपारण से जीत कर असेंबली पहुंचे थे और उन्हे इस हकुमत मे असंबली का उपसभापती बनाया गया.
▶ डॉ राजेंद्र प्रासाद के सदारत मे बनी बिहार लेबर इंकोआईरी कमीटी के नाएब सदर मुंतख़िब हुए..
▶ और इसी लेबर इंकौईरी कमीटी के साथ जमशेदपुर मज़दुरो के हाल चाल लेने पहुंचे.
▶ नेता जी सुभाष चंद्र बोस जो उस वक़्त जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन के सदर थे की दरख़्वास्त पर जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन की क़ियादत करने का फ़ैसला किया..
▶ अब्दुल बारी ने लेबर एसोसिएशन का भारतीय कानून के तहत मजदूर यूनियन के रूप में परिवर्तित किया।
▶ इसके बाद बिहार बंगाल उड़ीसा मे मज़दुर आंदोलन को एक नई पहचान दी और पुरे इलाक़े मे इंक़लाब ला दिया...
▶ टिस्को में मजदूरों के संगठन का नाम लेबर एसोसिएशन था। ट्रेड यूनियन एक्ट बनने के बाद अब्दुल बारी के कार्यकाल में इसका नामकरण टाटा वर्कर्स यूनियन किया गया था। पांच मजदूरों पर गोली चालन के बाद 1920 में लेबर एसोसिएशन बना था।
▶ टिस्को (टाटा स्टील) की तारीख़ मे पहला समझौता 1937 मे अब्दुल बारी की ही क़यादत मे हुआ.
▶ 1937 से 1947 तक अब्दुल बारी टिस्को (टाटा स्टील) वर्कर्स युनियन के सदर के तौर पर रहे..
▶ 1942 के भारत छोड़ो तहरीक से जुड़े और ख़ुद को साबित किया.
▶ 1946 में बिहार प्रादेश कमिटी के सदर मुंतख़िब हुए..
▶ 28 मार्च 1947 को ख़ुसरुपुर (फ़तुहा) के पास उन्हे शहीद कर दिया गया.
▶ महात्मा गांधी ने प्रोफे़सर अब्दुल बारी के शहादत पर संवेदना करते हुए 29 मार्च 1947 को कुछ बात लिखी थी जिसे बिहार विभुती किताब मे अभीलेखार भवन द्वारा शाए किया गया " जिसमे गांधी ने उन्हे अपनी आख़री उम्मीद बताया " और कहा के अब्दुल बारी एक ईमांदार इंसान थे पर साथ मे बहुत ही ज़िद्दी भी थे...
▶ वहीं पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रोफे़सर अब्दुल बारी की पहली बर्सी के मौक़े पर इनके कारनामे को याद करते हुए एक पैग़ाम 22 मार्च 1948 को लिखा जिसे मज़दुर आवाज़ मे शाए (छापा) किया गया.
महान मज़दूर नेता, जंगे आजादी के क़द्दावर नेता और 1937 में बिहार विधान सभा के सदस्य रहे प्रोफे़सर अब्दुल बारी 1940 के दशक में बिहार के सबसे बड़े कांग्रेसी और मज़दुर लीडर थे.
जिनके बारे में यहां तक कहा जाता है कि अगर 28 मार्च 1947 को ख़ुसरुपुर (फ़तुहा) के पास उन्हे शहीद नही किया जाता तो आज़ादी के बाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री "प्रोफेसर अब्दुल बारी" ही होते :) ख़ैर इन बातो को जाने दीजिए ...
कहने को तो "प्रोफ़ेसर अबदुल बारी" कांग्रेसी भी थे और कामनिस्ट (वामपंथी) भी पर खु़द को स्वातंत्रा सेनानीयों की पार्टी कहने वाली INC ने तो 'अबदुल बारी' को बिलकुल भुला ही दिया है और प्रोफ़ेसर अबदुल बारी के बनाए हुए मज़दुर युनियन के नाम पर ख़ुद को मज़दुरों की पार्टी कहने वाली कामनिस्ट पार्टीयों ने भी इन्हे भुला दिया है, हद तो तब हो गई जब हम मज़हब मुसलमानो ने इन्हे पहचाने से इंकार कर दिया. वैसे इनकी समाजिक और सियासी पहुंच का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है के इनके नमाज़े जनाज़ा मे महात्मा गांधी जैसे क़द्दावर लोग शरीक हुए थे :)
ये वही शख़स हैं जिनके एक क़ौल पर अक्तुबर 1946 को पुरा पटना शहर लहकने से बच गया जब बिहार का पुरा मगध ज़ोन मुसलिम मुख़ालिफ़ फ़सादात (दंगा) से जुझ रहा था जिसमे सिर्फ़ आठ दिन के अंदर तक़रीबन तीस हज़ार से भी ज़्यादा लोग क़तल कर दिए गए थे...
ये भी इत्तेफ़ाक़ है पटना शहर को बचाने वाला शख़्स ख़ुद पटना ज़िला के ख़ुसरुपुर (फ़तुहा) मे 28 मार्च 1947 को शहीद कर दिया जाता है एक गोरखा सिपाही के द्वारा(कहने वाली बात है) ... आज तक इस बात से पर्दा नही उठ सका के उनके क़तल की असल वजह क्या है ? और ज़िम्मेदार कौन है ?
अब्दुल बारी की शहादत के बाद बिहार में फिर दंगा भड़का, तो गांधीजी ने जवाहर लाल नेहरु को बिहार भेजा और अनुग्रह नारायण सिंह के साथ जवाहर लाल नेहरु तीन दिनों तक पैदल सड़कों पर घूम कर लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करते रहे...
वैसे प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करने के लिए कुछ इदारे , मैदान और सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है ⤵
➡ अब्दुल बारी मिमोरियल कालेज गोलमुरी जमशेदपुर
➡ अब्दुल बारी टाऊन हॉल जहानाबाद
➡ अब्दुल बारी पुल कोईलवर भोजपुर
➡ बारी मैदान साकची जमशेदपुर
➡ प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी टेकनिकल सेंटर पटना
➡ प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी पथ पटना
➡ प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी मेमोरियल हाई स्कुल, नोआमुंडी पश्चिम सिंहभुम
➡ बारी मैदान बर्नपुर आसनसोल
➡ उन्नीसवीं सदी मे बना कोईलवर का पुल इक्कीसवीं सदी में भी गर्व से अपनी सेवाएं आज भी दे रहा है जिसका असल नाम प्रोफेसर अब्दुल बारी के नाम पर रखा गया है और वो अब्दुल बारी पुल है। पर इस नाम से इसे कोई जानता नही है... पटना से आरा की तरफ़ जाने पर कोईलवर रेलवे स्टेशन के ठीक बाद यह पुल शुरू हो जाता है। एक ज़माने मे इस पुल को देश का सबसे बड़ा रेलवे पुल होने का भी श्रेय प्राप्त था। ये सोन नदी पर बना आखिरी पुल भी है। इसके बाद सोन नदी गंगा में मिल जाती है।
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हमें भी याद रखें जब लिखें तारीख़ गुलशन की,
के हमने भी जलाया है चमन में आशयां अपना.
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इस वजह कर बार बार कहता हुं के अपने बुज़ुर्गों को याद करें, तवारिख़ (इतिहास ) के नायकों कि मेहनत और योगदान को भुला देना या नज़रअंदाज कर देना भविष्य के लिए घातक है । अपने अपने क्षेत्रों के बुजुर्गों, स्वतत्रंता सेनानी, लेखक , शिक्षाविदयों के बारे मे लिखें क्योंकि ”जो कौम अपनी तवारीख भूलती है, उसे दुनिया भुला देती है.”
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